Class 10 History Chapter 5 Notes in Hindi | मुद्रण संस्कृति और आधुनिक दुनिया 

Class 10 History Chapter 5 Notes in Hindi : covered History Chapter 5 easy language with full details & concept  इस अध्याय में हमलोग जानेंगे कि – विश्व में प्रेस की शुरुआत कब और कहाँ, कैसे हुई?(When and where, how did the press start in the world), यूरोप में प्रिंट का आना(advent of print in Europe), गुटेनबर्ग का प्रिंटिंग प्रेस, प्रिंट क्राँति और उसके प्रभाव(print revolution and its effects), धार्मिक विवाद एवं प्रिंट का डर, लोगों में पढ़ने का जुनून(passion for reading), मुद्रण संस्कृति और फ्रांसीसी क्रांति(Print Culture and the French Revolution), प्रिंट तकनीक में अन्य सुधार, किताबें बेचने के नये तरीके, भारत का मुद्रण संसार(printing world of India), पाण्डुलिपियाँ(manuscripts), भारत में प्रिंटिंग की दुनिया(world of printing in india), मुस्लिमों ने मुद्रण संस्कृति को कैसे लिया(How Muslims took print culture), प्रकाशन के नये रूप(new forms of publication), प्रिंट और महिलाएँ(print and women), प्रिंट और प्रतिबंध, शुरुआती छपी किताबें किस प्रकार होती थी(what were the early printed books like)? 

Class 10 History Chapter 5 Notes in Hindi full details

category  Class 10 History Notes in Hindi
subjects  History
Chapter Name Class 10 Printing Culture and the Modern World (मुद्रण संस्कृति और आधुनिक दुनिया) 
content Class 10 History Chapter 5 Notes in Hindi
class  10th
medium Hindi
Book NCERT
special for Board Exam
type readable and PDF

NCERT class 10 History Chapter 5 notes in Hindi

इतिहास अध्याय 5 सभी महत्पूर्ण टॉपिक तथा उस से सम्बंधित बातों का चर्चा करेंगे।


विषय – इतिहास   अध्याय – 5

मुद्रण संस्कृति और आधुनिक दुनिया

Printing Culture and the Modern World


परिचय (Introduction) -: 

शुरुआती छपी किताबें :-

प्रिंट टेक्नॉलोजी का विकास सबसे पहले चीन , जापान और कोरिया में हुआ। चीन में 594 इसवी के बाद से ही लकड़ी के ब्लॉक पर स्याही लगाकर उससे कागज पर प्रिंटिंग की जाती थी । उस जमाने में कागज पतले और झिरीदार होते थे । ऐसे कागज पर दोनों तरफ छपाई करना संभव नहीं था । कागज के दोनों सिरों को टाँके लगाकर फिर बाकी कागज को मोड़कर एकॉर्डियन बुक बनाई जाती थी ।

चीन के प्रशासनिक तंत्र में सिविल सर्विस परीक्षा द्वारा लोगों की बहाली की जाती थी। इस परीक्षा के लिये चीन का राजतंत्र बड़े पैमाने पर पाठ्यपुस्तकें छपवाता था। सोलहवीं सदी में इस परीक्षा में शामिल होने वाले उम्मीदवारों की संख्या बहुत बढ़ गई। इसलिये किताबें छपने की रफ्तार भी बढ़ गई। अब छपाई केवल बुद्धिजीवियों या अधिकारियों तक ही सीमित नहीं था।

अब व्यापारी भी रोजमर्रा के दैनिक जीवन में छ्पाई का इस्तेमाल करने लगे। इससे व्यापार से जुड़े हुए आँकड़े रखना आसान हो जाये। कहानी, कविताएँ, जीवनी, आत्मकथा, नाटक आदि भी छपकर आने लगे। इससे पढ़ने के शौकीन लोगों के शौक पूरे हो सकें। खाली समय में पढ़ना एक फैशन जैसा बन गया था। रईस महिलाओं में भी पढ़ने का शौक बढ़ने लगा और उनमें से कईयों ने तो अपनी कविताएँ और कहानियाँ भी छपवाईं।

जापान में छापाई कैसे आया :- 

प्रिंट टेक्नॉलोजी को बौद्ध धर्म के प्रचारकों ने 768 से 770 इसवी के आस पास जापान लाया । बौद्ध धर्म की किताब डायमंड सूत्र ; जो 868 इसवी में छपी थी ; को जापानी भाषा की सबसे पुरानी किताब माना जाता है ।

उस समय पुस्तकालयों और किताब की दुकानों में हाथ से छपी किताबें और अन्य सामग्रियाँ भरी होती थीं। किताबें कई विषयों पर उपलब्ध थीं ; जैसे महिलाओं , संगीत के साज़ों , हिसाब – किताब , चाय अनुष्ठान , फूलसाज़ी , शिष्टाचार और रसोई पर लिखी , आदि ।

यूरोप में प्रिंट का आना :-

सिल्क रूट के माध्यम से ग्याहरवीं शताब्दी में चीनी कागज़ यूरोप पहुँचा। 1925 में मार्को पोलो चीन से मुद्रण का ज्ञान लेकर इटली गया। मार्को पोलो जब 1295 में चीन से लौटा तो अपने साथ ब्लॉक प्रिंटिंग की जानकारी लेकर आया। इस तरह इटली में प्रिंटिंग की शुरुआत हुई। उसके बाद प्रिंट टेक्नॉलोजी यूरोप के अन्य भागों में भी फैल गई। उस जमाने में कागज पर छपी हुई किताबों को सस्ती चीज समझा जाता था और हेय दृष्टि से देखा जाता था।

इसलिए कुलीन और रईस लोगों के लिए किताब छापने के लिए वेलम का इस्तेमाल होता था। वेलम चमड़े से बनाया जाता है और पतली शीट की तरह होता है। वेलम पर छपी किताब को रईसी की निशानी माना जाता था। पंद्रह सदी के शुरुआत तक यूरोप में तरह तरह के सामानों पर छपाई करने के लिए लकड़ी के ब्लॉक का जमकर इस्तेमाल होने लगा। इससे हाथ से लिखी हुई किताबें लगभग गायब ही हो गईं।

गुटेनबर्ग का प्रिंटिंग प्रेस :-

योहान गुटेन्बर्ग के पिता व्यापारी थे और वह खेती की एक बड़ी रियासत में पल बढ़कर बड़ा हुआ । वह बचपन से ही तेल और जैतून पेरने की मशीनें देखता आया था । बाद में उसने पत्थर पर पॉलिश करने की कला सीखी , फिर सुनारी और अंत उसने शीशे की इच्छित आकृतियों में गढ़ने में महारत हासिल कर ली ।

अपने ज्ञान और अनुभव का इस्तेमाल उसने अपने नए अविष्कार में किया । जैतून प्रेस ही प्रिंटिंग प्रेस का आदर्श बनी और साँचे का उपयोग अक्षरों की धातुई आकृतियों को गढ़ने के लिए किया गया ।

गुटेनबर्ग ने 1448 तक अपना यह यंत्र मुकम्मल कर लिया और इससे सबसे पहली जो पुस्तक छपी वह थी बाइबिल । शुरू में छपी किताबें अपने रंग रूप में और साज – सज्जा में हस्तलिखित जैसी ही थी । 1440 -1550 के मध्य यूरोप के ज्यादातर देशों में छापेखाने लग गए थे ।

प्रिंट उद्योग में इतनी अच्छी वृद्धि हुई कि पंद्रहवीं सदी के उत्तरार्ध्र में यूरोप के बाजारों में लगभग 2 करोड़ किताबें छापी गईं। सत्रहवीं सदी में यह संख्या बढ़कर 20 करोड़ हो गई।

प्रिंट क्राँति और उसके प्रभाव :-

प्रिंट टेक्नॉलोजी के आने से पाठकों का एक नया वर्ग उदित हुआ। अब आसानी से किसी भी किताब की अनेक कॉपी बनाई जा सकती थी, इसलिये किताबें सस्ती हो गईं। इससे पाठकों की बढ़ती संख्या को संतुष्ट करने में काफी मदद मिली। अब किताबें सामान्य लोगों की पहुँच में आ गईं। इससे पढ़ने की एक नई संस्कृति का विकास हुआ।

बारहवीं सदी के यूरोप में साक्षरता का स्तर काफी नीचे था। प्रकाशक ऐसी किताबें छापते थे जो अधिक से अधिक लोगों तक पहुँच सकें।
लोकप्रिय गीत, लोक कथाएँ और अन्य कहानियों को इसलिए छापा जाता था ताकि अनपढ़ लोग भी उन्हें सुनकर ही समझ लें। पढ़े लिखे लोग इन कहानियों को उन लोगों को पढ़कर सुनाते थे जिन्हें पढ़ना लिखना नहीं आता था।

धार्मिक विवाद एवं प्रिंट का डर :-

अधिकांश लोगों को यह भय था कि अगर मुद्रण पर नियंत्रण नही किया गया तो विद्रोही एवं अधार्मिक विचार पनपने लगेंगें । धर्म सुधारक मार्टिन लूथर किंग ने अपने लेखों के माध्यम से कैथोलिक चर्च की कुरीतियों का वर्णन किया । टेस्टामेंट के लूथर के तर्जुमें के कारण चर्च का विभाजन हो गया एवं और प्रोटेस्टेंट धर्मसुधार की शुरूआत हुई ।

धर्म – विरोधियों को सुधारने हेतु रोमन चर्च ने इंकविजिशन आरंभ किया । 1558 में रोमन चर्च ने प्रतिबंधित किताबों की सूची प्रकाशित की।

पढ़ने का जुनून :-

सत्रहवीं और अठारहवीं सदी में यूरोप में साक्षरता के स्तर में काफी सुधार हुआ। अठारहवीं सदी के अंत तक यूरोप के कुछ भागों में साक्षरता का स्तर तो 60 से 80 प्रतिशत तक पहुँच चुका था। साक्षरता बढ़ने के साथ ही लोगों में पढ़ने का जुनून पैदा हो गया।

किताब की दुकान वाले अकसर फेरीवालों को बहाल करते थे। ऐसे फेरीवाले गाँवों में घूम घूम कर किताबें बेचा करते थे। पत्रिकाएँ, उपन्यास, पंचांग, आदि सबसे ज्यादा बिकने वाली किताबें थीं।

छपाई के कारण वैज्ञानिकों और तर्कशास्त्रियों के नये विचार और नई खोज सामान्य लोगों तक आसानी से पहुँच पाते थे। किसी भी नये आइडिया को अब अधिक से अधिक लोगों के साथ बाँटा जा सकता था और उसपर बेहतर बहस भी हो सकती थी।

मुद्रण संस्कृति और फ्रांसीसी क्रांति :-

कई इतिहासकारों का मानना है कि प्रिंट संस्कृति ने ऐसा माहौल बनाया जिसके कारण फ्रांसीसी क्रांति की शुरुआत हुई । इनमें से कुछ कारण निम्नलिखित हैं :-

छपाई के चलते विचारों का प्रसार , उनके लेखन ने परंपरा , अविश्वास और निरकुंशवाद की आलोचना की ।
रीति – रिवाजों की जगह विवेक के शासन पर बल दिया ।
चर्च की धार्मिक और राज्य की निरकुंश सत्ता पर हमला ।
छपाई ने वाद विवाद की नई संस्कृति को जन्म दिया ।

1780 के दशक आने तक ऐसे साहित्य की बाढ़ आ गई जिसमें राजशाही का मखौल उड़ाया जाने लगा और उनकी नैतिकता की आलोचना होने लगी। प्रिंट के कारण राजशाही की ऐसी छवि बनी जिसमें यह दिखाया गया कि आम जनता की कीमत पर राजशाही के लोग विलासिता करते थे।इन विचारकों ने परंपरा, अंधविश्वास और निरंकुशवाद की कड़ी आलोचना की।

वॉल्तेअर और रूसो को ज्ञानोदय का अग्रणी विचारक माना जाता है।

प्रिंट तकनीक में अन्य सुधार :- 

न्यू यॉर्क के रिचर्ड एम. हो ने उन्नीसवीं सदी के मध्य तक शक्ति से चलने वाला बेलनाकार प्रेस बना लिया था । इस प्रेस से एक घंटे में 8,000 पेज छापे जा सकते थे ।

उन्नीसवीं सदी के अंत में ऑफसेट प्रिंटिंग विकसित हो चुका था । ऑफसेट प्रिंटिंग से एक ही बार में छ : रंगों में छपाई की जा सकी थी। बीसवीं सदी के आते ही बिजली से चलने वाले प्रेस भी इस्तेमाल में आने लगे । इससे छपाई के काम में तेजी आ गई ।

इसके अलावा प्रिंट की टेक्नॉलोजी में कई अन्य सुधार भी हुए । सभी सुधारों का सामूहिक सार हुआ जिससे छपी हुई सामग्री का रूप ही बदल गया ।

किताबें बेचने के नये तरीके :-

उन्नीसवीं सदी में कई पत्रिकाओं में उपन्यासों को धारावाहिक की शक्ल में छापा जाता था । इससे पाठकों को उस पत्रिका का अगला अंक खरीदने के लिये प्रोत्साहित किया जा सकता था ।

1920 के दशक में इंग्लैंड में लोकप्रिय साहित्य को शिलिंग सीरीज के नाम से सस्ते दर पर बेचा जाता था । किताब के ऊपर लगने वाली जिल्द का प्रचलन बीसवीं सदी में शुरु हुआ ।

1930 के दशक की महा मंदी के प्रभाव से पार पाने के लिए पेपरबैक संस्करण निकाला गया जो कि सस्ता हुआ करता था। 1920 के दशक में इंग्लैंड में लोकप्रिय साहित्य को शिलिंग सीरीज के नाम से सस्ते दर पर बेचा जाता था।

भारत का मुद्रण संसार :-

भारत में संस्कृत , अरबी , फारसी और विभिन्न श्रेत्रीय भाषाओं में हस्त लिखित पांडुलिपियों की पुरानी और समृद्ध परंपरा थी ।

पांडुलिपियाँ ताड़ के पत्तों या हाथ से बने कागज पर नकल कर बनाई जाती थी उनकी उम्र बढाने के विचार से उन्हें जिल्द या तख्तियों में बाँध दिया जाता था ।

पूर्व औपनिवेशक काल में बंगाल में ग्रामीण क्षेत्रों में प्राथमिक पाठशालाओं का बड़ा जाल था , लेकिन विद्यार्थी आमतौर पर किताबे नहीं पढते थे । गुरू अपनी याद्दाश्त से किताबें सुनाते थे , और विद्यार्थी उन्हें लिख लेते थे । इस तरह कई सारे लोग बिना कोई किताब पढ़े साक्षर बन जाते थे।

पाण्डुलिपियाँ :-

हाथों से लिखी पुस्तकों को पांडुलिपियाँ कहते हैं ।

भारत में प्रिंटिंग की दुनिया :-

भारत में प्रिंटिंग प्रेस सबसे पहले सोलहवीं सदी के मध्य में पुर्तगाली धर्मप्रचारकों द्वारा लाया गया। भारत में छपने वाली पहली किताबें कोंकणी भाषा में थी। 1674 तक कोंकणी और कन्नड़ भाषाओं में लगभग 50 किताबें छप चुकी थीं। 1780 से बंगाल गैजेट को जेम्स ऑगस्टस हिकी ने संपादित करना शुरु किया। यह एक साप्ताहिक पत्रिका थी।

हिकी ने कम्पनी के बड़े अधिकारियों के बारे में गॉशिप भी छापे। गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स ने हिकी को इसके लिये सजा भी दी। उसके बाद वारेन हेस्टिंग्स ने सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त अखबारों को प्रोत्साहन दिया ताकि सरकार की छवि ठीक की जा सके। बंगाल गैजेट ही पहला भारतीय अखबार था; जिसे गंगाधर भट्टाचार्य ने प्रकाशित करना शुरु किया था। 1821 से राममोहन राय ने संबाद कौमुदी प्रकाशित करना शुरु किया। इस पत्रिका में हिंदू धर्म के रूढ़िवादी विचारों की आलोचना होती थी।

देवबंद सेमिनरी की स्थापना 1867 में हुई। इस सेमिनरी ने एक मुसलमान के जीवन में सही आचार विचार को लेकर हजारों हजार फतवे छापने शुरु किये।

1810 में कलकत्ता में तुलसीदास द्वारा लिखित रामचरितमानस को छापा गया। 1880 के दशक से लखनऊ के नवल किशोर प्रेस और बम्बई के श्री वेंकटेश्वर प्रेस ने आम बोलचाल की भाषाओं में धार्मिक ग्रंथों को छापना शुरु किया।

इस तरह से प्रिंट के कारण धार्मिक ग्रंथ आम लोगों की पहुँच में आ गये। इससे नई राजनैतिक बहस की रूपरेखा निर्धारित होने लगी।
प्रिंट के कारण भारत के एक हिस्से का समाचार दूसरे हिस्से के लोगों तक भी पहुँचने लगा। इससे लोग एक दूसरे के करीब भी आने लगे।

मुस्लिमों ने मुद्रण संस्कृति को कैसे लिया :-

1822 में फारसी में दो अखबार शुरु हुए जिनके नाम थे जाम – ए – जहाँ – नामा और शम्सुल अखबार । उसी साल एक गुजराती अखबार भी शुरु हुआ जिसका नाम था बम्बई समाचार । उत्तरी भारत के उलेमाओं ने सस्ते लिथोग्राफी प्रेस का इस्तेमाल करते हुए धर्मग्रंथों के उर्दू और फारसी अनुवाद छापने शुरु किये ।

देवबंद सेमिनरी की स्थापना 1867 में हुई । इस सेमिनरी ने एक मुसलमान के जीवन में सही आचार विचार को लेकर हजार फतवे छापने शुरु किये ।

प्रकाशन के नये रूप :-

शुरु शुरु में भारत के लोगों को यूरोप के लेखकों के उपन्यास ही पढ़ने को मिलते थे । वे उपन्यास यूरोप के परिवेश में लिखे होते थे । इसलिए यहाँ के लोग उन उपन्यासों से तारतम्य नहीं बिठा पाते थे ।

बाद में भारतीय परिवेश पर लिखने वाले लेखक भी उदित हुए । ऐसे उपन्यासों के चरित्र और भाव से पाठक बेहतर ढंग से अपने आप को जोड़ सकते थे । लेखन की नई नई विधाएँ भी सामने आने लगीं ; जैसे कि गीत , लघु कहानियाँ , राजनैतिक और सामाजिक मुद्दों पर निबंध , आदि ।

उन्नीसवीं सदी के अंत तक एक नई तरह की दृश्य संस्कृति भी रूप ले रही थी । कई प्रिंटिंग प्रेस चित्रों की नकलें भी भारी संख्या में छापने लगे । राजा रवि वर्मा जैसे चित्रकारों की कलाकृतियों को अब जन समुदाय के लिये प्रिंट किया जाने लगा। 1870 आते आते पत्रिकाओं और अखबारों में कार्टून भी छपने लगे । ऐसे कार्टून तत्कालीन सामाजिक और राजनैतिक मुद्दों पर कटाक्ष करते थे ।

प्रिंट और महिलाएँ :-

कई लेखकों ने महिलाओं के जीवन और संवेदनाओं पर लिखना शुरू किया। इससे मध्यम वर्ग की महिलाओं में पढ़ने की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ी। कई ऐसे पुरुष आगे आये जो स्त्री शिक्षा पर जोर देते थे। कुछ महिलाओं ने घर पर रहकर ही शिक्षा प्राप्त की, जबकि कुछ अन्य महिलाओं ने स्कूल जाना भी शुरु किया। लेकिन पुरातनपंथी हिंदू और मुसलमान अभी भी स्त्री शिक्षा के खिलाफ थे। उनका मानना था कि शिक्षा से लड़कियों के दिमाग पर बुरे प्रभाव पड़ेंगे।

लोग चाहते थे कि उनकी बेटियाँ धार्मिक ग्रंथ पढ़ें लेकिन उसके अलावा और कुछ न पढ़ें। उर्दू, तमिल, बंगाली और मराठी में प्रिंट संस्कृति का विकास पहले ही हो चुका था, लेकिन हिंदी में ठीक तरीके से प्रिंटिंग की शुरुआत 1870 के दशक में ही हो पाई थी।

1871 ज्योतिबा फुले ने अपनी पुस्तक गुलामगिरी में जाति प्रथा के अत्याचारों पर लिखा। 1876 में रशसुन्दरी देवी की आत्मकथा आमार जीबन प्रकाशित हुई ।

प्रिंट और प्रतिबंध :-

1798 के पहले तक उपनिवेशी शासक सेंसर को लेकर बहुत गंभीर नहीं थे । शुरु में जो भी थोड़े बहुत नियंत्रण लगाये जाते थे वे भारत में रहने वाले ऐसे अंग्रेजों पर लगायें जाते थे जो कम्पनी के कुशासन की आलोचना करते थे ।

1857 के विद्रोह के बाद प्रेस की स्वतंत्रत के प्रति अंग्रेजी हुकूमत का रवैया बदलने लगा । वर्नाकुलर प्रेस एक्ट को 1878 में पारित किया गया। इस कानून ने सरकार को वर्नाकुलर प्रेस में समाचार और संपादकीय पर सेंसर लगाने के लिए अकूत शक्ति प्रदान की ।

राजद्रोही रिपोर्ट छपने पर अखबार को चेतावनी दी जाती थी । यदि उस चेतावनी का कोई प्रभाव नहीं पड़ता था तो फिर ऐसी भी संभावना होती थी कि प्रेस को बंद कर दिया जाये और प्रिंटिंग मशीनों को जब्त कर लिया जाये ।

वर्नाकुलर प्रेस एक्ट को 1878 में पारित किया गया। इस कानून ने सरकार को वर्नाकुलर प्रेस में समाचार और संपादकीय पर सेंसर लगाने के लिए अकूत शक्ति प्रदान की।


Class 10 History chapter 5  Important Question Answer

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01. मुद्रण संस्कृति ने भारत में राष्ट्रवाद के विकास में क्या मदद की ?

उत्तर ⇒ मुद्रण संस्कृति ने भारत में राष्ट्रवाद के विकास में बहुत ही महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। (क) अंग्रेज़ी काल में भारतीय लेखकों ने अनेक ऐसी पुस्तकों की रचना की जो

राष्ट्रीय भावनाओं से ओत-प्रोत थीं। (ख) बंकिंमचंद्र चटर्जी के उपन्यास ‘आनंदमठ‘ ने लोगों में देश-प्रेम की भावना का संचार किया। ‘वंदे-मातरम्‘ गीत भारत के कोने-कोने में गूँजने लगा। (ग) भारतीय समाचार पत्रों ने भी राष्ट्रीय आंदोलन के लिए उचित वातावरण तैयार किया। (घ) ‘अमृत बाज़ार पत्रिका‘, ‘केसरी‘, ‘मराठा‘, ‘हिंदू‘ तथा ‘बाँबे समाचार‘ आदि समाचार पत्रों में छपने वाले लेख राष्ट्र प्रेम से ओत-प्रोत होते थे। इन लेखों ने भारतीयों के मन में राष्ट्रीयता की ज्योति जलायी। (ङ) इसके अतिरिक्त भारतीय समाचार पत्र अंग्रेज़ी सरकार की ग़लत नीतियों को जनता के सामने रखते थे और उनकी खुल कर आलोचना करते थे।

समाचार पत्रों के माध्यम से ही लोगों को पता चला कि अंग्रेजी सरकार किस प्रकार बाँटो तथा राज करो की नीति का अनुसरण कर रही है। उन्हें भारत से होने वाले धन की निकासी की जानकारी भी समाचार पत्रों ने ही दी। इस प्रकार समाचार पत्रों ने उनके मन में राष्ट्रीयता के बीज बोये। सच तो यह है कि मुद्रण संस्कृति ने भारत में राष्ट्रवाद को बहुत ही मजबूत आधार प्रदान किया।

02. औपनिवेशिक सरकार ने भारतीय प्रेस को प्रतिबंधित करने के लिए क्या किया ?

उत्तर ⇒ औपनिवेशिक काल में प्रकाशन के विकास के साथ-साथ इसे नियंत्रित करने का भी प्रयास किया। ऐसा करने के पीछे दो कारण थे—पहला, सरकार वैसी कोई पत्र-पत्रिका अथवा समाचार पत्र मुक्त रूप से प्रकाशित नहीं होने देना चाहती थी जिसमें सरकारी व्यवस्था और नीतियों की आलोचना हो तथा दूसरा, जब अंगरेजी राज की स्थापना हुई उसी समय से भारतीय राष्ट्रवाद का विकास भी होने लगा। राष्ट्रवादी संदेश के प्रसार को रोकने के लिए प्रकाशन पर नियंत्रण लगाना सरकार के लिए आवश्यक था। भारतीय प्रेस को प्रतिबंधित करने के लिए औपनिवेशिक सरकार के द्वारा पारित विभिन्न अधिनियम उल्लेखनीय हैं –

(i) 1799 का अधिनियम- गवर्नर जनरल वेलेस्ली ने 1799 में एक अधिनियम पारित किया। इसके अनुसार समाचार-पत्रों पर सेंशरशिप लगा दिया गया।

(ii) 1823 का लाइसेंस अधिनियम- इस अधिनियम द्वारा प्रेस स्थापित करने से पहले सरकारी अनुमति लेना आवश्यक बना दिया गया।

(iii) 1867 का पंजीकरण अधिनियम – इस अधिनियम द्वारा यह आवश्यक बना दिया गया कि प्रत्येक पुस्तक, समाचार पत्र एवं पत्र-पत्रिका पर मुद्रक, प्रकाशक तथा मुद्रण के स्थान का नाम अनिवार्य रूप से दिया जाए। साथ ही प्रकाशित पुस्तक की एक प्रति सरकार के पास जमा करना आवश्यक बना दिया गया।

(iv) वाक्यूलर प्रेस एक्ट (1878) – लार्ड लिटन के शासनकाल में पारित प्रेस को प्रतिबंधित करने वाला सबसे विवादास्पद अधिनियम यही था। इसका उद्देश्य देशी भाषा के समाचार पत्रों पर कठोर अंकुश लगाना था। अधिनियम के अनुसार भारतीय समाचार पत्र ऐसा कोई समाचार प्रकाशित नहीं कर सकती थी जो अंगरेजी सरकार के प्रति दुर्भावना प्रकट करता हो। भारतीय राष्ट्रवादियों ने इस अधिनियम का बड़ा विरोध किया।

03. छपाई से विरोधी विचारों के प्रसार को किस तरह बल मिलता था ? संक्षेप में लिखें।

उत्तर ⇒ मुद्रण तकनीक से किताबों की पहुँच दिन-प्रतिदिन सुलभ होती गई। इसमें ज्ञान का प्रसार हुआ और तर्क को बढ़ावा मिला। परंतु कुछ लोग ऐसे भी थे जो किताबों के सुलभ हो जाने से चिंतित थे। जिन लोगों ने छपी हुई किताबों का स्वागत भी किया, उनके मन में कई प्रकार की शंकाएं थीं। चिंतित लोगों में मुख्य रूप से धर्मगुरु, सम्राट् तथा कुछ लेखक शामिल वे समझ नहीं पा रहे थे कि छपे हुए शब्दों का लोगों के दिलो-दिमाग़ पर क्या प्रभाव पड़ेगा। उनका मानना था कि यदि पुस्तकों पर कोई नियंत्रण नहीं होगा तो लोग अधर्मी और विद्रोही बन जाएंगे। ऐसे में ‘मूल्यवान‘ साहित्य की सत्ता ही नष्ट हो जाएगी। थे।

04. उन्नीसवीं सदी में भारत में ग़रीब जनता पर मुद्रण संस्कृति का क्या असर हुआ ?

उत्तर ⇒ मुद्रण संस्कृति से देश की ग़रीब जनता अथवा मज़दूर वर्ग को बहुत लाभ पहुँचा। पुस्तकें इतनी सस्ती हो गई थीं कि चौक-चौराहों पर बिकने लगी थीं। ग़रीब मज़दूर इन्हें आसानी से खरीद सकते थे। बीसवीं शताब्दी में सार्वजनिक पुस्तकालय भी खुलने लगे जिससे पुस्तकों की पहुँच और भी व्यापक हो गई। बंगलौर के सूती मिल मज़दूरों ने स्वयं को शिक्षित करने के उद्देश्य से अपने पुस्तकालय स्थापित किए। इसकी प्रेरणा उन्हें बंबई के मिल-मज़दूरों से मिली थी। कुछ सुधारवादी लेखकों की पुस्तकों ने मज़दूरों को जातीय भेदभाव के विरुद्ध संगठित किया। इन लेखकों ने मजदूरों के बीच साक्षरता लाने, नशाखोरी को कम करने तथा अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाने के भरसक प्रयास किए। इसके अतिरिक्त उन्होंने मज़दूरों तक राष्ट्रवाद का संदेश भी पहुँचाया। मज़दूरों का हित साधने वाले लेखकों में ज्योतिबा फुले, भीमराव अंबेडकर, ई० वी० रामास्वामी नायकर तथा काशीबाबा के नाम लिये जा सकते हैं। काशीबाबा कानपुर के एक मिल मजदूर थे। उन्होंने 1938 में छोटे और बड़े सवाल छापकर छपवा कर जातीय तथा वर्गीय शोशण के बीच का रिश्ता समझाने का प्रयास किया। बंगलौर के सूती मिल मजदूरों ने स्वयं को शिक्षित तथा जागरूक करने के लिए पुस्तकालय बनाए। अनेक समाज सुधारकों ने भी कोशिश की कि मज़दूरों के बीच नाशाखोरी कम हो तथा साक्षरता दर बढ़े।

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05. मद्रण क्रांति ने आधुनिक विश्व को कैसे प्रभावित किया।

उत्तर ⇒ मुद्रण क्रांति ने आम लोगों को जिन्दगी ही बदल दी मुद्रण क्रांति के करण छापाखानों की संख्या में भारी वृद्धि हुई। जिसके परिणामस्वरूप पर निर्माण में अप्रत्याशित वृद्धि हुई।
मुद्रण क्रांति के फलस्वरूप किताबें समाज के हर तबकों के बीच पहुँच पायी। किताबों की पहुंच आसान होने से पढ़ने की एक नई संस्कृति विकसित हुई। एक नया पाठक वर्ग पैदा हुआ तथा पढ़ने के कारण उनके अंदर तार्किक क्षमता का विकास हुआ। पठन-पाठन से विचारों का व्यापक प्रचार-प्रसार हुआ तथा तर्कवाद और मानवतावाद का द्वार खुला। धर्म सुधारक मार्टिन लूथर ने रोमन कैथोलिक चर्च की कुरीतियों की आलोचना करते हुए अपनी पिच्चानवें स्थापनाएँ लिखी। फलस्वरूप चर्च में विभाजन हुआ और प्रोटेस्टेंटवाद की स्थापना हुई। इस तरह छपाई से नए बौद्धिक माहौल का निर्माण हुआ एवं धर्म सुधार आंदोलन के नए विचारों का फैलाव बड़ी तेजी से आम लोगों तक हुआ। वैज्ञानिक एवं दार्शनिक बातें भी आम जनता की पहुँच से बाहर नहीं रही। न्यूटन, टामसपेन, वाल्तेयर और रूसो की पुस्तकें भारी मात्रा में छपने और पढ़ी जाने लगी।
मुद्रण क्रांति के फलस्वरूप प्रगति और ज्ञानोदय का प्रकाश यूरोप में फैल चुका था। लोगों में निरंकुश सत्ता से लड़ने हेतु नैतिक साहस का संचार होने लगा था। फलस्वरूप मुद्रण संस्कृति ने फ्रांसीसी क्रांति के लिए अनुकूल परिस्थितियों का निर्माण किया।

06. मुद्रण यंत्र की विकास यात्रा को रेखांकित करें। यह आधुनिक स्वरूप में कैसे पहुँचा?

उत्तर ⇒ मुद्रण कला के आविष्कार और विकास का श्रेय चीन को जाता है। 1041 ई० में एक चीनी व्यक्ति पि-शेंग ने मिट्टी के मुद्रा बनाए। इन अक्षर मुद्रों को साजन कर छाप लिया जा सकता था। इस पद्धति ने ब्लॉक प्रिंटिंग का स्थान ले लिया। धातु के मुवेबल टाइप द्वारा प्रथम पुस्तक 13वीं सदी के पूर्वार्द्ध में मध्य

कोरिया में छापी गई। यद्यपि मवेबल टाइपों द्वारा मुद्रण कला का आविष्कार ता पूरख में ही हुआ, परंतु इस कला का विकास यूरोप में अधिक हुआ। 13वीं सदी के आतम में रोमन मिशनरी एवं मार्कोपोलो द्वारा ब्लॉक प्रिंटिंग के नमनं यरोप पहुँचे। रोमन लिपि में अक्षरों की संख्या कम होने के कारण लकड़ी तथा धातु के बने मूर्वबल टाइम का प्रसार तेजी से हुआ। इसी काल में शिक्षा के प्रसार, व्यापार एवं मिशनारया का बढ़ती गतिविधियों से सस्ती मुद्रित सामग्रियों की माँग तेजी से बढ़ी। इस मांग की पति के लिए तेज और सस्ती मद्रण तकनीकी की आवश्यकता थी, जिसे (14304 दशक में) स्ट्रेसवर्ग के योहान गुटेन्वर्ग ने पूरा कर दिखाया।

18वीं सदी के अंतिम चरण तक धातु के बने छापाखानं काम करने लगे। 19वीं-20वीं सदी में छापाखाना में और अधिक तकनीकी सुधार किए गए। 19वा शताब्दी में न्यूयार्क निवासी एम० ए० हो ने शक्ति-चालित बेलनाकार प्रेस का निर्माण किया। इसके द्वारा प्रतिघंटा आठ हजार ताव छापे जाने लगे। इससे मुद्रण में तेजी आई। 20वीं सदी के आरंभ से बिजली संचालित प्रेस व्यवहार में आया। इसने छपाई को और गति प्रदान की। प्रेस में अन्य तकनीकी बदलाव भी लाए गए।

07. फ्रांसीसी क्रांति की पृष्ठभूमि तैयार करने में मुद्रण की भूमिका की विवेचना करें।

उत्तर ⇒ फ्रांस की क्रांति में बौद्धिक कारणों का भी काफी महत्त्वपूर्ण योगदान था। फ्रांस के लेखकों और दार्शनिकों ने अपने लेखों और पुस्तकों द्वारा लोगों में नई चेतना जगाकर क्रांति की पृष्ठभूमि तैयार कर दी। मुद्रण ने निम्नलिखित प्रकारों से फ्रांसीसी क्रांति की पृष्ठभूमि तैयार करने में अपनी भूमिका निभाई।

(i) ज्ञानोदय के दार्शनिकों के विचारों का प्रसार— फ्रांसीसी दार्शनिकों ने रूढ़िगत सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक व्यवस्था की कटु आलोचना की। इन लोगों ने इस बात पर बल दिया कि अंधविश्वास और निरंकुशवाद के स्थान पर तर्क और विवेक पर आधारित व्यवस्था की स्थापना हो। चर्च और राज्य की निरंकुश सत्ता पर प्रहार किया गया। वाल्टेयर और रूसो ऐसे महान दार्शनिक थे जिनके लेखन का जनमानस पर गहरा प्रभाव पड़ा।

(ii) वाद-विवाद की संस्कृति— पुस्तकों और लेखों ने वाद-विवाद की संस्कृति को जन्म दिया। अब लोग पुरानी मान्यताओं की समीक्षा कर उन पर अपने विचार प्रकट करने लगे। इससे नई सोच उभरी। राजशाही, चर्च और सामाजिक व्यवस्था में बदलाव की आवश्यकता महसूस की जाने लगी। फलतः क्रांतिकारी विचारधारा का उदय हुआ।

(iii) राजशाही के विरुद्ध असंतोष- 1789 की क्रांति के पूर्व फ्रांस में बड़ी संख्या में ऐसा साहित्य प्रकाशित हो चुका था जिसमें तानाशाही, राजव्यवस्था और इसके नैतिक पतन की कट आलोचना की गयी थी। अनेक व्यंग्यात्मक चित्रा वारा यह दिखाया गया कि किस प्रकार आम जनता का जीवन कष्टों और अभावों से ग्रस्त था, जबकि राजा और उसके दरबारी विलासिता में लीन हैं। इससे जनता में राजतंत्र के विरुद्ध असंतोष बढ़ गया।


Class 10 History chapter 5 Important Objective Question Answer (MCQ)

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1. जापान की सबसे पुरानी पुस्तक डायमंड सूत्र कब छपी ?

    1. 868 ई० में
    2. 866 ई० में
    3. 867 ई० में
    4. 865 ई० में

Ans :- A

2. गुन्टेंबर्ग के पिता क्या थे ?

    1. पत्रकार
    2. चित्रकार
    3. लेखक
    4. व्यापारी

Ans :- D

3. किस सदी में यूरोप के अधिकतर हिस्सों में साक्षरता दर बढ़ी ?

    1. सत्रहवीं
    2. अठारवीं
    3. सत्रहवीं व अठारवीं
    4. इनमेंं से कोई नही

Ans :- C

4. मुद्रण संस्कृति में लेखन ने किसकी आलोचना प्रस्तुत की ?

    1. परम्परा
    2. निरकुंश्वाद
    3. अंधविश्वास
    4. उपरोक्त सभी

Ans :- D

5. उन्नीसवीं सदी में किसने जन साक्षरता की दिशा में लम्बी छलाँग लगाई ?

    1. एशिया
    2. यूरोप
    3. अफ्रीका
    4. इटली

Ans :- B

6. फ्रांस में 1857 में बाल-पुस्तकें छापने के लिए क्या स्थापित किया गया ?

    1. मुद्रणालय
    2. प्रैस
    3. क और ख दोनों
    4. इनमेंं से कोई नही

Ans :- C

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7. उन्नीसवीं सदी के इंग्लैंड में पुस्तकालयों का इस्तेमाल किसके लिए किया गया ?

    1. सफेद कालर मजदूरों के लिए
    2. निम्न वर्गीय लोगों के लिए
    3. दस्तकारों के लिए
    4. उपरोक्त सभी

Ans :- D

8. उन्नीसवीं सदी के मध्य तक शक्ति चालक बेलनाकार प्रैस की किसने कारगर बनाया था ?

    1. न्यूयार्क के लेखक
    2. रिचर्ड म.हो.
    3. क और ख दोनों
    4. कोई नही

Ans :- C

9. बेलनाकार प्रैस से कितनी शीट छप जाती थी ?

    1. 6000
    2. 7000
    3. 8000
    4. 9000

Ans :- C

10. किस दशक में इंग्लैंड में लोकप्रिय किताबें एक शिलिंग श्रृंखला में छपने लगीं ?

    1. 1919
    2. 1920
    3. 1921
    4. 1930

Ans :- B

11. पांडुलिपियों किस पर बनाई जाती थी ?

    1. ताड़ के पत्तों पर
    2. हाथ से बने कागज
    3. नकल कर
    4. उपरोक्त सभी

Ans :- D

12. भारत के गांवों में पुर्तगाली धर्म-प्रचारकों के साथ क्या आया ?

    1. अखबार
    2. पत्राचार
    3. प्रिटिंग प्रैस
    4. पत्र-लेखन

Ans :- C

13. जेम्स आगस्टस हिक्की ने बंगाल गजट नामक एक साप्ताहिक पत्रिका का सम्पादन कब किया ?

    1. 1770
    2. 1780
    3. 1790
    4. 1778

Ans :- B

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14. राजा राम मोहन राय ने संवाद कौमुदी कब प्रकाशित की ?

    1. 1820
    2. 1821
    3. 1822
    4. 1823

Ans :- B

15. 1882 में कौन-से फारसी अखबार प्रकाशित हुए ?

    1. शन्सुल
    2. जाम-ए-जहाँ
    3. क और ख दोनों
    4. कोई नही

Ans :- C

16. तुलसीदास की किताब रामचरितमानस का प्रथम मुद्रित संस्करण कब और कहाँ प्रकाशित हुआ ?

    1. 1810 कोलकत्ता में
    2. 1808 लखनऊ में
    3. 1811 में उत्तर भारत
    4. 1809 में जयपुर

Ans :- A

17. निम्न में से साहित्यक विधाएँ कौन-सी है ?

    1. गीत
    2. कहानियाँ
    3. सामाजिक व राजनितिक लेख
    4. उपरोक्त सभी

Ans :- D

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18. 1880 के दशक में किसने उच्च जाति की नारियों की दयनीय स्थिति के बारे में रोष व जोश से लिखा ?

    1. पंडिता रमाबाई
    2. ताराबाई शिंदे
    3. क और ख दोनों
    4. कोई नही

Ans :- C

19. कलकत्ता का एक सम्पूर्ण क्षेत्र बतला कहाँ पर पुस्तकों के प्रकाशन को समर्पित है ?

    1. उड़ीसा
    2. बंगाल
    3. मध्य प्रदेश
    4. मद्रास

Ans :- B

20. वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट कब लागू किया गया ?

    1. 1877
    2. 1878
    3. 1876
    4. 1875

Ans :- B

21. जनरल बेंटिक प्रैस कानून की पुर्नसमीक्षा की सहमति कब मिली ?

    1. 1835
    2. 1834
    3. 1832
    4. 1836

Ans :- A

22. मराठी प्रणेता ज्योतिबा फुले ने अपनी कृति गुलामगिरी में किस के अत्याचारों के बारे में लिखा ?

    1. बेरोजगारी
    2. जाति-प्रथा
    3. भूखमरी
    4. आडम्बरों

Ans :- B 

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